रीवा। बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व की पचासवीं सालगिरह उल्लास के साथ मनाई गई और इतिहास को साक्षी बनाने के लिए इस अवसर पर एक फिल्म भी लोगों को दिखाई गई जिसमें मार्तण्ड सिंह का नाम न होने पर अब आपत्ति सामने आने लगी है। इस लघु फिल्म में बांधवगढ़ के इतिहास को समझाने की कोशिश की गई है।
बांधवगढ़ के भौगोलिक और नैसर्गिक परिवेश से भी इस फिल्म में परिचय कराया गया है लेकिन इस फिल्म में उस शख्सियत को नजरांदाज कर दिया गया जिसकी परिकल्पना से बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व अपने वर्तमान स्वरूप तक पहुंचने में सफल हो पाया है। आम आदमी के सिपाही के जिला संगठक त्रिभुवन प्रताप सिंह ने इस घटना को आसाधारण बताया है और अपनी आपत्ति दर्ज कराई है।
निजी स्वामित्व का था जंगल-
जिस बांधवगढ़ को देखने के लिए देश विदेश से हजारों पर्यटक हर साल उमरिया आते हैं दरअसल वो जंगल कभी रीवा रियासत का हिस्सा था और महाराज मार्तण्ड सिंह की निजी सम्पत्ति में शामिल था। वाइल्ड लाइफ एक्ट के अस्तित्व में आने के बहुत पहले मार्तण्ड सिंह ने बांधवगढ़ के जंगल को लेकर पार्क की परिकल्पना कर ली थी और इस बारे में राज्य सरकार से पत्राचार भी शुरू कर दिया था। नईदुनिया से चर्चा करते हुए त्रिभुवन प्रताप सिंह ने बताया कि सन उन्नीस सौ पैंसठ में जब बांधवगढ़ को नेशनल पार्क का दर्जा दिया गया था तब इसमें मार्तण्ड सिंह ने अपनी अहम भूमिका निभाई थी।
विलय के बाद भी स्वामित्व-
देश की आजादी के बाद जब रियासतें भारत में विलय होने लगी और रीवा को भी शामिल कर लिया गया तब भी बांधवगढ़ पर मार्तण्ड सिंह का स्वामित्व बना रहा। दरअसल सरकार ने स्वयं ऐसा किया था और निजी स्वामित्व में होने के कारण ही बांधवगढ़ का जंगल मार्तण्ड सिंह की निजी शिकारगाह थी, हालांकि इस जंगल में किसी के भी शिकार खोलने पर प्रतिबंध था और इसके लिए बकायदा यहां सुरक्षा श्रमिक तैनात किए गए थे।
त्याग को मिलना चाहिए सम्मान-
त्रिभुवन प्रताप सिंह का कहना है कि महाराजा मार्तण्ड सिंह ने जब इतना बड़ा जंगल सरकार को सौंप दिया और इस पार्क के फाउंडर मेंबर के रूप में सामने आए तो फिर पार्क की 50 वीं वर्षगांठ पर उन्हें सम्मान मिलना ही चाहिए था। उन्होंने नाराजगी जताई कि ऐसा नहीं किया गया। होना तो ये चाहिए कि पार्क में मार्तण्ड सिंह की मूर्ति लगे और उनका इतिहास बताया जाए, पर यहां तो नाम भी नहीं लिया जा रहा है।
अपनी इच्छा से दिया जंगल-
महाराजा मार्तण्ड सिंह ने अपने एक विदेश मित्र की सलाह से बांधवगढ़ को पार्क बनाने का प्रस्ताव सरकार को दिया और अपनी इच्छा से ही जंगल सरकार के हवाले कर दिया। इसके बावजूद सरकार ने जंगल में बने किले को अधिग्रहित नहीं किया और उस पर मार्तण्ड सिंह का स्वामित्व बना रहा। इस सदी की शुरूआत में सरकार ने किले को भी अधिग्रहित करना चाहा जिसका मामला फिलहाल न्यायालय में विचाराधीन है।
जिस फिल्म का प्रदर्शन किया गया था उसे एक एनजीओ ने बनाया था और ये उनका अपना मामला था। बांध्ावगढ़ की 50 वीं वर्षगांठ में सिर्फ उसका प्रदर्शन किया गया था और इससे ज्यादा कुछ नहीं है।
-अनिल शुक्ला , प्रभारी ज्वाइंट डायरेक्टर बांधवगढ़
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